Monday 23 September 2019

तन्हाई

                      








दिल तन्हा, दिन तन्हा, रात और तन्हा,
सफ़र तन्हा, ये चुप तन्हा, बात और तन्हा ।

तन्हाई का आलम है कुछ इस क़दर,
जुदाई है तन्हा, मुलाक़ात और तन्हा ।


ख़ामोश हर इंसान शोरगुल में दबा,
मौत है तन्हा, हयात और तन्हा ।


ख़ाली हाथ आऐं, ख़ाली ही जाऐं,
ज़िंदगी में सैंकड़ों सौग़़ात और तन्हा ।


तेरे रंज-ओ-ग़म में वो शामिल नहीं,
तेरा ग़म तन्हा, फरहत और तन्हा ।


सिर्फ गुफ़्तगू के कोई मायने नहीं,
हैं महफिल भरी, ख़यालात और तन्हा ।


हज़ारों ख़्वाहिशें हैं दिल में दबीं,
सिर्फ रिश्ते नये, जज़़्बात और तन्हा ।


दामन में उसके सितारे भी नहीं,
है चांद तन्हा, रात और तन्हा ।


दिल तन्हा, दिन तन्हा, रात और तन्हा,
सफर तन्हा, ये चुप तन्हा, बात और तन्हा ।


प्रियंका सिंह


*हयात- जिंदगी
 रंज-ओ-गम- दुख
 फरहत- खुशियां
 गुफ़्तगू- बातचीत

Saturday 19 January 2019

दरकती दीवार











 


मेरे गांव में एक घर की पुरानी दीवार,
दरकते रिश्तों सी दरकती दीवार,
कुछ ईंटें हैं बिखरी कुछ अब भी हैं चस्पॉं,
कई पुश्तों की कहानी समेटे दीवार,
सुनाते हैं तुमको गर वक्त हो तो,

कुछ कहना चाहे ये बूढ़ी दीवार।

कभी बॉंधे थी खुद में हज़ारों यादें,
ऑंगन में बच्चों के खेल, मॉंओं की बातें,
भैंस का चारा, दूध का दुहना,
सुबह का चूल्हा, दही का मथना,
चारपाई पर लेटी अम्मा की बुड़बुड़

सॉंझ को नीम तले हुक्के की गुड़गुड़।

ठिठोली भी होती, लड़ाई भी होती,
मुंह फुलाए ननद-भौजाई भी होती,
कभी बनती-बिगड़ती, भाइयों में ठनती,
अम्मा की डांट पर मान मनौव्वल भी होती,
खामोश खड़ी थी, पर सब सुनती थी,

वो दीवार जिसकी पुरखों ने नींव रखी थी।

अब सबको जाना शहर था सब पढ़ गये थे,
छोड़ अम्मा-बाबा को सब कढ़ गये थे,
वो ऑंगन था सूना, वो नीम अकेला,
अब कहॉं लगता था बच्चों का मेला,
अम्मा चल बसीं, न बाबा रहे,

वो नीम, वो दीवार वहीं थे खड़े।

हरा नीम सूख कर ठूंठ खड़ा था,
हुई चौखट पुरानी, किवाड़ गिर पड़ा था,
दीवार की ईंटों में काई जमी थी,
धीरे-धीरे वो भी गिर पड़ी थीं,
आवाज़ें सुनने को तरसती बूढ़ी दीवार,

दरकते रिश्तों सी दरकती दीवार।।

प्रियंका सिंह