साथ जो साये बन चलते रहे,
पड़ी धूप तो गुपचुप पिघलते रहे,
बन के कालिख़ लगे कभी हम पर,
कभी ग़ुबार बन हमें निगलते रहे।
जेब में खंज़र लिए,
और हाथ में मरहम लिए,
बन के मेरे हमनवा,
वो साथ ही चलते रहे।
बने रहे रफीक जो,
दरअसल थे हरीफ वो,
मुँह चाशनी करते रहे,
पीठ छलनी करते रहे।
रुसवा ज़माने भर में कर,
वो फिर यूँ नादां बन गए,
तिफ़्ल-ए-दिल दिखते रहे,
आस्तीन के सांप से पलते रहे।
वफा के बदले हमें मौत दी,
अजीज़ बन वो मय्यत में रहे,
सब पुर-अश्क दुआएँ पढ़ते रहे,
वो सना खंज़र रख चलते रहे।
साथ जो साये बन चलते रहे,
पड़ी धूप तो गुपचुप पिघलते रहे,
बन के कालिख़ लगे कभी हम पर,
कभी ग़ुबार बन हमें निगलते रहे।
~ प्रियंका सिंह
हमनवा- दोस्त
रफीक- दोस्त
हरीफ- दुश्मन
रुसवा - अपमानित
तिफ़्ल-ए-दिल- बच्चे जैसा दिल
पुर-अश्क- आंसुओं से भरी हुई आंख
Tuesday 29 June 2021
पिघलते साये
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