Friday 23 September 2022

कुछ बे-हया औरतें








कुछ बे-हया औरतें
उतरी हैं सड़क पर
अपना चेहरा दिखातीं,
जल्दी ढको उन्हें
कि दिख ना जाए
उनका दर्द और उदासी

कुछ बे-हया औरतें
नहीं रहना चाहती
फूल सी नाजुक,
तोड़ डालो उन्हें 
कि बदल न जाएं
वो शोलों में

कुछ बे-हया औरतें
बोलने लगी हैं,
दबा दो ये आवाज़
इस से पहले कि
इनकी चीखें
कानों को चीर जाएं

कुछ बे-हया औरतें
मांगती हैं अपना हक
वो जीना चाहती हैं,
कुचल दो उन्हें
कि साँस लेने का हक
है सिर्फ मर्द को

कुछ बे-हया औरतें
बनना चाहती हैं इंसान,
मार डालो उन्हें
इस से पहले कि
वो बन जाएं
जानवर से इंसान

~ प्रियंका सिंह

Thursday 1 September 2022

चिट्ठी के ज़माने








वो दौर पुराने थे
चिट्ठी के ज़माने थे,
रंगीन कागज़ों पर
ढेरों अफ़साने थे,
मोहर लगी टिकटें
पते जाने-पहचाने थे,
प्रेम, गिले-शिकवे
सब दिल खोल बताने थे।

कुछ ख़तों में इक ख़त का
इंतज़ार भी होता था,
तहों के बीच फूल रख
इज़हार भी होता था,
जज़्बातों के सैलाबों का
मल्हार भी होता था,
बारिश में धुले हर्फ़ों पर भी
एतबार होता था।

वो चिट्ठी के ज़माने सी
बातें अब क्या होंगी,
वो इन्तज़ार के दिन
और रातें अब क्या होंगी,
प्रियतम के ख़त से बड़ी
सौगातें क्या होंगी,
इक पन्ने में सब कहने की
चाहतें क्या होंगी।

मीलों का सफ़र तय कर
दिल तक आ जाती थीं,
पल-पल की ख़बर ना मिले
पर सच्चा हाल बताती थीं,
वक़्त पर न सही पर
सही पते पर पहुंच ही जाती थीं,
डिलीट नहीं होती थीं
सहेज कर रखी जाती थीं।

हमें मोबाइल के दौर में भी
इक अदद चिट्ठी का इंतज़ार है,
जो गुज़र गया बरसों पहले
उस चिठ्ठी के ज़माने से प्यार है।

~ प्रियंका सिंह