Thursday 22 April 2021

धरा का प्रतिकार








धरा लेती है प्रतिकार

हर बार
मांगती है मानव से
उसके अपराधों का हिसाब
जो किए मानव ने
प्रकृति की गोद में बैठ
उसके ही साथ
भूल गया मानव
वो है एक यात्री यहां
जो स्वयं इस धरती का
स्वामी बना
मनुष्य के इसी कृत्य का
धरा लेती है प्रतिकार
हर बार।

छीनकर किसी और के
हिस्से की धरती
बना ली मनुष्य ने
अपनी संपत्ति
काट डाले पेड़ और
जंगलों में लगाई आग
मार डाले सब जीव
और उजाड़ दिए
उनके घर और नीड़
जो बेज़ुबान नहीं बोलते
कौन करेगा उनकी बात
अपनी उस सन्तान का
धरा लेती है प्रतिकार
हर बार।

जो नीर कलकल बहता
नदियों में, सागर में
छिपा धरती के नीचे
और बादल में
क्या उस पर हक है
सिर्फ तेरा मेरा ही
छीन कर सब के हिस्से का जल
पी गया सिर्फ मानव ही
सूखा दिये सारे जलाशय
और प्रदूषित किये
झील, सागर, नदी
अपने सूखते जल का
धरा लेती है प्रतिकार
हर बार।

शहर की नींव में
पहाड़ों को कर दिया दफन
क्षत-विक्षत किए
मनुष्य ने अक्षुण्ण पर्वत
कर के भूधर का खनन
बनाई इमारतें और रास्ते
त्रस्त किया जल जीवन
विकास के वास्ते
टूटे ग्लेशियर, हुआ भूस्खलन
त्राहिमाम हुआ मानव
पर ना कर पाया आत्ममंथन
अपने टूटते पर्वतों का
धरा लेती है प्रतिकार
हर बार।

प्रियंका सिंह
 

Saturday 3 April 2021

टेसू


यही था वो मौसम जब तुम गये थे,

यूं ही रास्तों में टेसू बिखरे हुए थे,

शाख़ों पर कुछ पत्ते पुराने कुछ नए थे,

जो टूटे, संग आँधियों के उड़ गए थे।


यही था वो रास्ता जहां आख़िरी मिले थे,

यहीं से तुम किसी मंज़िल को चले थे,

ना मकसद पता, ना कोई वादा किए थे,

टूटे ख़्वाब, आंखों में आब दे गए थे।


यही था वो मंज़र, तमन्नाएं यही थीं,

वो बदलते मौसम की हवाएँ यही थीं,

टीस बन बिखरे टेसू आंख सुर्ख़ कर गए थे,

आती गर्मी में रिश्तों को बर्फ़ कर गए थे।


कभी जो लौटो, तो इसी मौसम में आना,

हो सके तो लेना वो रास्ता पुराना,

बरस-दर-बरस जो तुम्हारी याद दिलाते,

तोहफ़े में वो कुछ बिखरे टेसू ले आना।


~प्रियंका सिंह


टेसू- पलाश के फूल

मकसद- उद्देश्य

आब- पानी

मंज़र- नज़ारा

तमन्नाएं- इच्छायें

टीस- दर्द

सुर्ख़- लाल

बरस-दर-बरस- हर वर्ष