Friday 7 September 2018

मन के बंधन










बहते हुये पानी पे क्यों अकड़ के खड़ी हो
क्यों अपने खयालात यूं जकड़ के खड़ी हो,

बह जाओ, मचल जाओ, लहर जाओ तुम भी यूं ही,
मिल जाओ इस रवानी में क्यों डर के खड़ी हो।

शहर की तंग गलियों में आब ए रवां नहीं होते,
इस आब ओ हवा में भी क्यों दिल जकड़ के खड़ी हो।

आबशार ने आफताब को रोशन हैं कर डाला,
तुम शहर के चौंधे को ही पकड़ के खड़ी हो।

खुल जाओ, खिल जाओ, लो पानी का इक बोसा
ज़रा अक्स तो देखो, कैसे संभल के खड़ी हो।

पानी ने तो सारे बंघन हैं खोल डाले,
खोलो बेबाकी के सिरे क्यों पकड़ के खड़ी हो।

प्रियंका सिंह 

Thursday 26 April 2018

चांद का भी ग़म नहीं


रात की चादर तले,
सैंकड़ों तारे जलें,
एक अकेले चांद को,
तू क्योंकर ताकता रहे।

इक तो लाखों दूरियां,
फिर चांद की मजबूरियां,
उठना गिरना पड़ता है,
बादल में छिपना पड़ता है।

तारों की नीयत साफ है
ना गुरूर का अहसास है,
फिर भी सागर की लहरों सा,
तू चांद देख मचलता रहा,
तू चांद ताक बढ़ता रहा।

तू चांद ताक आगे बढ़ा,
अमावस की रात जो रूका,
फलक का हर तारा बोला,
बढ़ आगे कि रोशनी हम में भी है।

अंबर के स्याह दामन को
हम भी तो संवरते हैं,
अमावस की काली रात में भी,
हम यूं ही दमकते हैं।

मौसम की धार हमपे भी है,
बादलों की मार हमपे भी है,
फिर भी तेरी राह को
रोशन हम यूं ही करते हैं।

माना चांद सा सुरूर हममें नहीं
पर वो गूरूर हममें नही,ं
तेरी ख्वाहिश पूरी करने को
टूट, बिखरने को मचलते हैं।

चांद तो बेचारा एक है,
किस किस के हिस्से आएगा,
बदरा ज़रा से छाये तो
फिर कहीं छिप जाएगा।
तारे हैं लाखों अंबर में
कोई एक तेरा हो जाएगा।

एक तारा भी संग हो लिया,
तो रोशनी कुछ कम नहीं,
रोशन रहे जो जिं़दगी,
तो चांद का भी ग़म नहीं
तो चांद का भी ग़म नहीं।

प्रियंका सिंह




Wednesday 18 April 2018

गर होते...













पंछी होते तो पंख होते
तितली होते तो रंग होते,

चूम लेते आसमां सारा,
बन हवा बादल के संग होते।

बन के बूंद गिरते दरख्तों पर,
पत्तियों की उमंग होते,

घुल जाते समां में,
जो वीणा की तरंग होते

छा जाते, लहरा जाते,
जो खूबसूरत तिरंग होते।

पर इंसां हैं,जमीं पर हैं,
अंबर है बहुत दूर,

है शुक्रिया खुदा
आसमां में दर ओ खिड़कियां नहीं,

क्या ख़ाक देखते,
जो इनके दरवाज़े भी बंद होते।।

प्रियंका सिंह

Wednesday 7 February 2018

ये भीड़ मैं ही हूं


                 








  ये भीड़ मैं ही हूं

  वो कहते हैं भीड़ में दम घुटता है
  अब तो मॉल में भी जेंटरी नहीं, भीड़ आती है,
  खुली सड़कें, ऐसी कमरे, खाली मॉल चाहिए
  ग़रीबों की बस्ती से दूर आलीशान घर चाहिए,
  चिथड़ों में लिपटा हर बच्चा चोर लगता है
  जात पात का बंधन मजबूत डोर लगता है,
  है गर्मी बहुत, एसी कार में भी लू लगती है
  धूप में तपता मजदूर इंसां नहीं ढोर लगता है।

   हमें याद आती हैं न जाने कितनी दोपहरें,
   हाथ में कैमरा थामे बस्तियों में घूमना
   उनके साथ बैठ कर चाय भी पीना,
   न कभी जात पूछी, न कभी धर्म ही पूछा
   सब को कुछ दर्द था, सब इंसां ही तो थे।

   याद आयी गाजीपुर डंप की एक स्टोरी,
   हम कूड़े के ढेर में घुटनों तक धंसे थे
   सर पर मंडराती चीलें, हम घंटों से खडे थे,
   सड़ांध थी, गज़ब गर्मी, पर नहीं थी कोई जल्दी
   बस उस एक स्टोरी की फिक्र थी।

   ऐसी एक नहीं अनगिनत दोपहरें याद हैं
   सब लू, पसीने, गर्द और भीड़ से भरी,
   गरीबों की भीड़, अमीरों की भीड़
   नेताओं की भीड़, जनता की भीड़,
   रैली की भीड़, एडमिशन की भीड़
   कैमरों की भीड़, रिपोर्टरों की भीड़,
  
   ये भीड़ ज़िंदगी है मेरी
   इसमें दम नहीं घुटता,
   इस भीड़ ने मुझे रोटी दी, इज्जत दी है,
   ये भीड़ मैं ही हूं, ये भीड़ मेरी है
   ये भीड़ मैं ही हूं, ये भीड़ मेरी है।

   प्रियंका सिंह