Friday 26 November 2021

शहर की चीत्कार

 











नहीं थी गाँव में पक्की सड़क
बड़े स्कूल, कॉलेज, फैक्ट्री या दफ्तर,
लेकिन जीवनयापन को चाहिए
शिक्षा का हथियार, रोज़गार।

आ गए शहर क्यूंकि
पक्की सड़कें ले जाती थीं
कॉलेज और यूनिवर्सिटी की राह,
पाए दफ्तरों में ओहदे
शिक्षा के बल पर,
कैसी भाती थी वो चकाचौंध
रात भर ना सोता शहर, ना तुम,
धीरे-धीरे परिवार आया फिर
गाँव के गाँव और कस्बे
शहर के हो लिए।

शहर ने सबको अपनाया
बिना किसी भेदभाव,
यहां जाति से नहीं
शिक्षा से होती पहचान,
मेहनत कर वो सब पाना चाहा
जो गाँव ना दे सका,
वो सब लिया भी
जो शहर का था।

शहर ने दिया अपना वितान
पंख फैलाने को पूरा आसमान,
क्या ना मिला शहर से
शिक्षा, रोज़गार, बिजली, पानी
चमचमाती कार, मकान, दोस्त, पैसा,
बरसों शहर में रह कर
अब कोसते हो शहर को ही,
रूमानी अंदाज़ में बता कर
गाँव के किस्से कहानियां,
ज्यूं शहर में आकर
कुछ भाया ही नहीं
कुछ पाया ही नहीं।

क्यूँ बार-बार बिजली जाती है ?
क्यूँ पानी इतना गंदा है यहां?
देखो, इनकी नदी कितनी मैली है!
क्यूँ मकानों के दाम आसमान छूते हैं?
क्यूँ कालेजों में दाखिला नहीं होता?
अरे, कितना प्रदूषण है यहां!
कैसे जहरीली हवा में साँस लें?
उफ्फ, कितना ट्रैफिक है!
ये शहर तो रहने लायक नहीं रहा!
इस से अच्छा तो गाँव ही था!

जानते हो, अहसान-फरामोश दिखते हो
जब ऐसे कहते हो,
बरसों शहरों का दोहन कर
शहरों को ही कोसते हो,
न्यौते नहीं गए थे
खुद शहर आए थे,
अपनी पहचान बनाने
रोज़गार के लिए।

ये शहर जो आज ज़हर लगते हैं
जिनसे वापस गाँव लौटना चाहते हो,
जाने से पहले इनका उधार चुका जाओ,
वो हवा जिसे प्रदूषित किया तुमने भी,
वो पक्की सड़कें जिनके गड्ढों में
तुम्हारे वाहन का भी योगदान है,
वो बिजली, पानी, ज़मीन,
जिसकी कमी के तुम भी जिम्मेदार हो,
यूँ ही नहीं दोहन कर चलते बनोगे
कर जाओ उसे वैसा ही
जैसा मिला था बरसों पहले,
कम से कम आभार ही जता दो
कि इन शहरों ने बरसों पाला है तुम्हें,
क्या सुनती नहीं तुम्हें शहर की चीत्कार
जिसके तुम भी हो ज़िम्मेदार।

~ प्रियंका सिंह