Thursday 26 April 2018

चांद का भी ग़म नहीं


रात की चादर तले,
सैंकड़ों तारे जलें,
एक अकेले चांद को,
तू क्योंकर ताकता रहे।

इक तो लाखों दूरियां,
फिर चांद की मजबूरियां,
उठना गिरना पड़ता है,
बादल में छिपना पड़ता है।

तारों की नीयत साफ है
ना गुरूर का अहसास है,
फिर भी सागर की लहरों सा,
तू चांद देख मचलता रहा,
तू चांद ताक बढ़ता रहा।

तू चांद ताक आगे बढ़ा,
अमावस की रात जो रूका,
फलक का हर तारा बोला,
बढ़ आगे कि रोशनी हम में भी है।

अंबर के स्याह दामन को
हम भी तो संवरते हैं,
अमावस की काली रात में भी,
हम यूं ही दमकते हैं।

मौसम की धार हमपे भी है,
बादलों की मार हमपे भी है,
फिर भी तेरी राह को
रोशन हम यूं ही करते हैं।

माना चांद सा सुरूर हममें नहीं
पर वो गूरूर हममें नही,ं
तेरी ख्वाहिश पूरी करने को
टूट, बिखरने को मचलते हैं।

चांद तो बेचारा एक है,
किस किस के हिस्से आएगा,
बदरा ज़रा से छाये तो
फिर कहीं छिप जाएगा।
तारे हैं लाखों अंबर में
कोई एक तेरा हो जाएगा।

एक तारा भी संग हो लिया,
तो रोशनी कुछ कम नहीं,
रोशन रहे जो जिं़दगी,
तो चांद का भी ग़म नहीं
तो चांद का भी ग़म नहीं।

प्रियंका सिंह




Wednesday 18 April 2018

गर होते...













पंछी होते तो पंख होते
तितली होते तो रंग होते,

चूम लेते आसमां सारा,
बन हवा बादल के संग होते।

बन के बूंद गिरते दरख्तों पर,
पत्तियों की उमंग होते,

घुल जाते समां में,
जो वीणा की तरंग होते

छा जाते, लहरा जाते,
जो खूबसूरत तिरंग होते।

पर इंसां हैं,जमीं पर हैं,
अंबर है बहुत दूर,

है शुक्रिया खुदा
आसमां में दर ओ खिड़कियां नहीं,

क्या ख़ाक देखते,
जो इनके दरवाज़े भी बंद होते।।

प्रियंका सिंह