उस ऊंची पहाड़ी पर
बादलों के बीच घिर
चमकीली पोटली से निकाल
एक बार फिर पढ़े
कुछ बरसों पुराने ख़त,
कहीं-कहीं गिरी थीं
कुछ बूंदे आंसुओं की
स्याही मिटी नहीं थी अभी
खुशबू भी बरकरार थी
लेकिन उम्मीद नहीं।
मीलों फैले पहाड़
छू-छू कर जाते बादल
नीले आसमान के तले
उन्हें पढ़ा कई-कई बार,
फिर एक आख़िरी बार
जोर से सीने से लगा
बहती हवाओं के साथ
उन्हें रिहा कर दिया
साथ ही रिहा कर दिये
यादों के अनगिनत जुगनू।
दूर तलक उड़ते वो ख़त
ज्यूं साँझ होते ही
घरों को लौटते पंछी
या तेज़ हवाओं में
शाख़ों से टूटते पत्ते,
आँखों से ओझल होते
ख़्वाब, ख्वाहिशें, प्रेम
जो छूट जाएं तो
कभी लौटते नहीं।
उनकी खुशबू अब
घुल गई फ़िज़ाओं में
उनके हर्फ़ मिल गए
बादलों की स्याही में,
हवाओं के संग
इठलाते उन ख़तों ने
छुए होंगे कई पेड़
मिले होंगे पत्तों संग
बहे होंगे किसी
झरने की धार में,
धुल तो गई होगी
अब उनकी स्याही
उनकी खुशबू में
अब मिल गई होगी
ओस की खुशबू
और चीड़ के पेड़ों की।
बरसों पोटली में बंद
वो ख़त मेरी तरह
आज छुए उन्होंने भी
आकाश, पहाड़, पेड़, नदी
आज उनका और मेरा
नया जन्म हुआ
कभी प्रकृति के संग
लिखे गये ख़त
आज फिर से
मिल गए प्रकृति में।
~ प्रियंका सिंह
Very nice 🙂🙂👍
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