Wednesday 7 February 2018

ये भीड़ मैं ही हूं


                 








  ये भीड़ मैं ही हूं

  वो कहते हैं भीड़ में दम घुटता है
  अब तो मॉल में भी जेंटरी नहीं, भीड़ आती है,
  खुली सड़कें, ऐसी कमरे, खाली मॉल चाहिए
  ग़रीबों की बस्ती से दूर आलीशान घर चाहिए,
  चिथड़ों में लिपटा हर बच्चा चोर लगता है
  जात पात का बंधन मजबूत डोर लगता है,
  है गर्मी बहुत, एसी कार में भी लू लगती है
  धूप में तपता मजदूर इंसां नहीं ढोर लगता है।

   हमें याद आती हैं न जाने कितनी दोपहरें,
   हाथ में कैमरा थामे बस्तियों में घूमना
   उनके साथ बैठ कर चाय भी पीना,
   न कभी जात पूछी, न कभी धर्म ही पूछा
   सब को कुछ दर्द था, सब इंसां ही तो थे।

   याद आयी गाजीपुर डंप की एक स्टोरी,
   हम कूड़े के ढेर में घुटनों तक धंसे थे
   सर पर मंडराती चीलें, हम घंटों से खडे थे,
   सड़ांध थी, गज़ब गर्मी, पर नहीं थी कोई जल्दी
   बस उस एक स्टोरी की फिक्र थी।

   ऐसी एक नहीं अनगिनत दोपहरें याद हैं
   सब लू, पसीने, गर्द और भीड़ से भरी,
   गरीबों की भीड़, अमीरों की भीड़
   नेताओं की भीड़, जनता की भीड़,
   रैली की भीड़, एडमिशन की भीड़
   कैमरों की भीड़, रिपोर्टरों की भीड़,
  
   ये भीड़ ज़िंदगी है मेरी
   इसमें दम नहीं घुटता,
   इस भीड़ ने मुझे रोटी दी, इज्जत दी है,
   ये भीड़ मैं ही हूं, ये भीड़ मेरी है
   ये भीड़ मैं ही हूं, ये भीड़ मेरी है।

   प्रियंका सिंह

4 comments:

  1. बहुत सुंदर विचार है...रिपोर्टिंग के वो दिन हम सबको याद है..खबर की अहमियत सब भुला देती है और जो इसे समझ गया वही सच्चा रिपोर्टर बन सकता है... ALL THE BEST.. for future assignment...

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  2. Very true said Bhabhi.
    Beautifully penned down the life, from the eyes of a true reporter.
    You are an inspiration to many people around and I am one of them.
    God Bless you always. Waiting for many more experiences in form of poetry.

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