रस्मों, रीति- रिवाजों के
बंधनों में बंधी
स्त्री,
पहले छटपटाती फिर
स्वयं उनमें बंध
जाती,
कब उनके मोह
में पड़ जाती
थाह भी ना
पाती।
सोलह सोमवार से
शुरू
उत्तम वर की
चाह,
करवा चौथ के
कठिन व्रत में
बदलती,
आस्था के नाम
पर हर वर्ष
प्रेम की अग्निपरीक्षा
देती।
वो भूखी निर्जल
देह,
चमकती साड़ी और
मेकअप तले
अपमान को दबा,
प्रेम और सम्मान
को तरसती
सखियों संग दमकती
अगली सुबह से
फिर पिटती और
खटती।
सपूत हो या
कुपूत
अहोई- जितिया तो
होगा ही,
उसके जन्म के
बाद से ही
पुत्र-प्रेम की
परीक्षा भी
स्त्री ही तो
देगी,
जैसे जन्म देना
परीक्षा नहीं।
पुत्र कलह करे
या मारे,
तो भी अहोई
तो होगा
या सात समंदर
पार से
बात भी ना
कर पाएगा,
व्रत के रूप
में
माँ की प्रेम-परीक्षा पाएगा।
स्त्रियाँ बंधी हैं
व्रतों से
रीति-रिवाजों से,
ज्यूं बंधी हो
खूंटे से कोई
गाय,
शिक्षा भी इस
खूंटे को
तोड़ नहीं पाए।
कई नाम दिए
इस खूंटे को,
प्रेम, आस्था, संस्कृति,
रिवाज
पर असल नाम
भय है।
जिसे बचपन से
स्त्री मन में
रोपा जाता है
एक बीज की
तरह,
सींचा जाता है
ताउम्र
एक पौधे की
तरह,
और विवाहोपरांत
पेड़ बनने दिया
जाता है
गहरी जड़ों वाला
जिसकी विशाल टहनियों
पर टंगते
बिछुए, मंगलसूत्र, बिंदी, चूड़ियां,
और रस्मों रिवाजों
की
एक बड़ी सी
काली गठरी।
चाह कर भी
स्त्री
भय के खूंटे
से छूटती नहीं
क्यूंकि भय ने
ही तो
उसे तराशा है
उम्र के हर
पड़ाव पर
भय ने उसे
उसकी
हद बताई है
एक लड़की की
तरह
पत्नी और बहू
की तरह
फिर माँ की
तरह
स्त्री को कब
भय का
खूँटा तोड़ने दिया?
जो भय का
खूंटा तोड़ दे
तो स्त्री, स्त्री ना
रहेगी
पुरुष ही ना
हो जाएगी!
So so beautifully described, such a pearl of words.
ReplyDeleteThank you
Deleteबहुत मार्मिक
ReplyDeleteधन्यवाद
DeleteThank you
ReplyDeleteAti sundar
ReplyDeletePriyanka, it’s Very beautiful and deep.. it depicts the beauty, strength, warmth and compassion of women. Thank You 👍🤗🌺
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